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गूँजती गुस्ताखियाँ
Surjeet Kumar
Editora: Surjeet Kumar
Sinopse
एक बार मैंने कही सुना था, "कड़वे सच सुनने वाले भी कम है, और दुर्भाग्य है कि कड़वे सच बोलने वाले भी बहुत कम रह गए है।" सभ्य समाज के कोने-कोने मे अनेको ऐसी घटनाएं देखने को मिलती है, जहाँ गलतियाँ, गुस्ताखियों का रूप ले कर गूँज रही है। सब को बहुत कुछ गलत होते दिखाई दे रहा है, उसकी आहटें लोगों को परेशान कर रही है। लोगों का सामना अब बड़े-बड़े गुनाहों से होने लगा है जिसे कभी वो छोटी-छोटी गलती समझ कर नजरंदाज कर देते थे। लोगों को अब खुल कर इन विषयों पर बात भी करने डर सा लगने लगा है, एक अजीब सी घुटन को लोग महसूस कर रहे है। सब समस्या का समाधान चाहते है, लेकिन कुछ वर्ग विशेष का प्रभाव इतना अधिक है, की वो कमियों के गहरे धब्बे को समाज से स्वच्छ परिधान से साफ नहीं होने दे रहे है। उन्ही गुस्ताखियों की लंबी सूची में से चंद गुस्ताखियों और कड़वे सच को कविताओं में गूंथने की गुस्ताखी कर रही है प्रस्तुत पुस्तक “गूँजती गुस्ताखियाँ”।